कवि का उत्थान.
मैं समझ नहीं पाया था
नदी किनारे घास पे लेटे
मुझ पर पेड़ तना था या तने पर धूप
कभी धूप मुझ पर कभी धूप पर पेड़
पेड़ की कक्षा में मैं बेबस उपग्रह
परिक्रमा लगा रहा था घास पर ही
तभी तुम मिले थे कुछ क्षणों भर
मैं तुम्हें गुनगुना रहा था
बाद घर की चारदीवारी के अंदर आक्रांत
कड़ी सुरक्षा से घिरे, तुम्हारे लिए डरावने
घर के भीतर, तुम पूरे आ नहीं सके कभी
निर्विवाद समग्र पूरे
वहाँ तुममें संकीर्णता नहीं थी
न ही तुम सरकार के चाटुकार थे
न इतने अदम्य विद्रोही
ये सब मेरे मत्सर हैं ऐ मेरे प्यारे ख़याल
जितने भोले तुम हो निर्दोष सच्चे व सटीक
उतने तुम आ नहीं पाते ना मेरी किताबों में
कितना फ़र्क़ है वहाँ से यहाँ तक के आफ़ताबों में!
आते समय रास्तों में बूँद-बूँद टपक गए
गिर गए लाने ले जाने में
वहीं उग गए हो इन सालों में
वृक्षारोपक शासकों के कालों में
कभी कट भी जाओगे क्या पता
प्रगतिशील विकासप्रिय सरकारों के लौट आने पर
पर तुम्हें अपने कर्त्तव्य पता हैं
मैंने देखा एक-एक तने से टिका
एक-एक बच्चा मेरी किताब लिए
अंततः तुम समझ आ रहे हो सबको
सफल हो गए हो देखो राष्ट्रनिर्माता...
और मुझे देखो ज़रा-सा अपना स्तर
बदलने में मुझे इतनी आपत्ति, ऐसा अहं
मैं हूँ त्वपितु तुम्हारा पोषक, आलोचक
वस्तुतः तो तुम ही हो काव्यधारा
निजअभिव्यक्त, कालबद्ध, सुदर्शना
मैं मीन-मेख निकालने वाला समकालीन कवि
असंतुष्ट, विघ्नसंतोषी, अलोकप्रिय
एवं चिंतित तुम्हारे भविष्य को ले कर।
-- मनीष श्रीवास्तव १६-०२-२०२१
2. So be it!
दिले-रहमत कभी मुझपे भी फ़िदा हो जा तू
और माशूक़ गिला रख के जुदा हो जा तू
प्यार बिकता है कू में यार ख़रीदार तो हो
खोल दिल चाक ग़रीबाने-गदा हो जा तू
तेरी महफ़िल से दूर शेर तेरे सुनता हूँ
अब भरे शहर में जंगल की सदा हो जा तू
सांवरे दिन का सनम तोड़ शबे-बर्क़ में आ
रास के रक़्स में आ यार ख़ुदा हो जा तू।।
3. होरी खेल, खेर मनमाही!
सरापा रंगों से भर दूँ
नैक-बोहोत की कसर छुड़ी तो
स्याही से कर दूँ
जग में जिसकी थाह नहीं है
उल्टे पैरों राह नहीं है
जंतर मंतर टोने टमने
किसपे, अब कुछ चाह नहीं है
अंत काल सब रोग बिराना
दरसन तज जर लूँ।
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