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प्रस्तावना.
आच्छादन की कविताएँ एक विशेष मानसिक धरातल को एक-एक कर पुष्ट करती चलती हैं। एक-सा समाधान होते हुए भी सभी अलग-अलग प्रकार की बातें भिन्न-भिन्न विषयों पर कर रही हैं। जिससे रसिक पाठक एक का आस्वादन कर बैठ नहीं पाता कि दूसरी कविता उसे दूसरे लोक की सैर करा देती है। झकझोरना, सिहराना, अंतर्तम का संक्षोभण यहाँ एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। आदमी ठहर के सोच नहीं पाता है कि उसका दूसरा अंग, दूसरा पक्ष, दूसरा पहलू भी तृप्त होता जाता है। ये तृप्ति एक उबाऊ संतुष्टि तक न ले जा कर वस्तुतः तो एक नई प्यास ही पैदा कर देती है।
हरेक पन्ने में पाठक को कुछ तो अवश्य मिलना यह तथ्य, यहाँ नियोक्लासिकल स्वरूप व शरीर में बँधा हुआ है। ये कविताएँ शास्त्रीय शब्दावली लेते हुए भी नितांत आधुनिक एवं प्रासंगिक हैं। लगभग प्रत्येक कविता अपने आप में एक प्रयोग है, जिनकी सफलता सिद्ध करती है कि किसी भी प्रकार की वर्जना पाठक वर्ग को पसंद नहीं है, फिर चाहे वह समाजवादी सरोकारी काव्य की नीरसता हो या नई कविता के नाम पर बिल्कुल सपाट और तथाकथित आसान काव्य दे कर पाठक की इंटेलिजेंस का मज़ाक उड़ाना। तिस पर तुर्रा ये कि कविताएँ आजकल चलती नहीं हैं, "ऐसा लिखो, ऐसा नहीं!” आदि गतिरोध।
यथावत् छोटे-छोटे विश्व में भी अनगिनत प्रयोगों की संभावना थी क्योंकि हाइकू तीन पंक्तियों की लघु कविता होते हुए प्रत्येक में अलग बात, अलग विषय पर, अलग ध्वनि से प्रस्तुत करने का माध्यम ही है। यहाँ तो कवि की आज़ादी की पराकाष्ठा है, समस्त विश्व से मोतियों की तरह विषय चुन लेने की सुविधा है तथा सरोकार यहाँ भूषण की तरह सुशोभित होता है, जबरन थोपा नहीं जाता।
हिन्दी में हाइकू कम ही लिखे गए हैं, मैंने ५-७-५ अक्षरों में नहीं बल्कि इनको थोड़ा और सुदीर्घ किया है क्योंकि जॅपनीज़ में भी ५-७-५ कॅरेक्टर्स लंबा साउंड करते हैं अर्थात् कॅरेक्टर अक्षर नहीं होते। काफ़ी सशक्त हिंदी कविता हाइकू फ़ॉरमैट में हो सकती है यह इस पुस्तक से सुविदित होता है। सारे ही १०८ हाइकू मन में ‘अहा!’ शब्द को स्फुटित करने वाले हैं।
साथ ही पाँच लघुकथाएँ भी हैं जिनमें बच्चों के मुख्य पात्र हैं तथा कुछ अलौकिक व अच्छा घटता है उनके आस-पास, यही इन कहानियों की थीम है। पुनश्च बच्चों के कोमल भावों को बड़ी पटुता व कौशल से शब्दों में बाँधा गया है। अपितु इनमें भी सरोकार बड़ी मासूमियत के साथ विद्यमान हैं। - मनीष. २-३-१८
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